हमारे देश में धरातल पर समस्याएं कुछ और होती हैं, योजनाकार कुछ और योजना बना देते हैं और ऊपर से हल कुछ और सुझाया जाता है। इस स्थिति में समाधान ही समस्या बन जाता है। सरकारी योजनाओं के नाकाम होने का मुख्य कारण होता है योजनाकारों का आम लोगों से नहीं जुड़ना। दैनिक भास्कर डॉट कॉम लोगों के विचारों, उनकी समस्याओं को इन योजनाकारों तक पहुंचाने का एक प्रयास कर रहा है। हम अपने पाठकों के विचारों को, उनकी समस्याओं, उनके सुझावों को वेबसाइट पर प्रकाशित कर रहे हैं।
इस कड़ी में हमें पहला लेख राजस्थान के एक गांव से एक किसान का मिला है। हरविंदर बरार यूं तो किसान हैं लेकिन खुद को अपडेट रखने के लिए वो ब्रॉडबैंड से जुड़े हैं।
पढ़िए हरविंदर का यह लेख
भारत में ग्रामीण कल्याण के लिए बनने वाली सरकारी योजनाओं के बारे
में आम राय यह है कि वो शुरु तो गंगा की तरह होती हैं लेकिन गांवों तक
पहुंचते-पहुंचते सरस्वती की तरह विलुप्त हो जाती हैं। गंगा तो अपने घाटों पर प्यासों की प्यास बुझाकर, दुष्टों के पाप धोकर, सारी दुनिया का गंदगी को समाते हुए जैसे-तैसे बंगाल की खाड़ी तक पहुंच जाती है। लेकिन ये योजनाएं सरकारी तंत्र के हर घाट पर बैठे घाघों को पार नहीं कर पाती। ये सरकारी कागजों में 'सरस्वती' की तरह मिलती हैं।
हमारे देश की रीढ़ कृषि को आगे ले जाने के लिए जमीनी स्तर पर आवश्यकतानुरूप विशेष काम नहीं हुआ। फलस्वरूप ये दिनों-दिन पिछड़ती रही है और कृषि के लिए जरूरी खाद, बीज, कीटनाशक दवाएं, डीजल, मशीनरी आदि के दाम पिछले एक दशक में बेतहाशा बढ़े हैं (300-500 प्रतिशत तक)। लेकिन इसके अनुपात में कृषि उत्पादों की कीमतों में मामूली बढ़ोत्तरी हुई है। इसका सीधा असर यह हुआ है कि किसानों की सुद्ध आय कम हो गई है। यही कारण है कि देश तो तरक्की कर रहा है लेकिन किसान पिछड़ रहे हैं। उदाहरण के तौर पर आज पशु आहार की कीमत दूध की कीमत से ज्यादा है। इस कारण बाजार में दूध भारी दामों में बिकने के बाद भी किसान को फायदा नहीं मिल रहा है। एक तो उसका दूध बाजार भाव से कम पर खरीदा जाता है दूसरा उसे पशु आहार महंगी दरों पर खरीदना पड़ता है।
आज भारत के किसानों की मुख्य समस्याएं यह हैं1. किसानों को अपनी उपज का सही दाम नहीं मिल रहा।2. सबसे निचले स्तर पर होते हुए किसान भ्रष्टाचार का सबसे ज्यादा शिकार हो रहे हैं।3. खराब बिजली और सिंचाई व्यवस्था के कारण किसान उपज क्षमता के जितना नहीं उगा पा रहे हैं4. जिले के हर कार्यालय में व्याप्त भ्रष्टाचार (इससे सिर्फ किसान ही नहीं बाकी सब भी त्रस्त हैं)
मल्टीनेशनल कंपनिया भी किसानों को लूट रही हैं-एक किसान जो जमीन पर खेती करता है उसके लिए तो सरकार ने अधिकतम भूमि सीमा लागू कर रही हैं लेकिन कंपनियों के लिए ऐसा नहीं है। एक कंपनी जिसकी फैक्ट्री बहुत कम जमीन में लग सकती है वो सरकारी योजनाओं का फायदा उठा किसानों की अधिक से अधिक भूमि अवाप्त कर लेती है और बाद में उस भूमि को मुनाफा कमा कर बेच देती हैं। ये कंपनियां कम जमीन की खरीद फरोख्त का धंधा करने वाली एजेंसियां ज्यादा बन गई हैं। यही नहीं किसानों से विकास के नाम पर जमीन तो ले ली जाती है लेकिन असली विकास फैक्ट्री का होता है किसानों का नहीं।
किसान सभी मुसिबतों, भ्रष्टाचार, मौसम की मार, रिश्वतखोरी, अव्यवस्थाओं का सामना कर जो उपज पैदा करता है उसका 25-30 प्रतिशत तो सिर्फ भ्रष्ट सप्लाई चैन और खराब भंडारण व्यवस्था के कारण ही नष्ट हो जाता है। बची कुची कसर सटोरिये पूरा कर देते हैं। सटोरियों का तो घर भर जाता है लेकिन किसान का पेट खाली रह जाता है।
आज जो प्याज 60-80 रुपए किलो तक मिल रही है उसकी किसान को कभी भी कीमत दस रुपए किलो से ज्यादा नहीं मिली है। किसान के खेत में प्याज अधिकतम 5 रुपए किलो ही बिकती है। उदाहरण के तौर पर मैंने आज ही गाजर 2 रुपए किलो बेची है। आप को बेहतर पता होगा की आप गाजर किस रेट पर खरीदते हैं। एक परेशानी यह भी है कि यदि मैं कोई पूरी तरह आर्गेनिक (कैमिकल फ्री) फसल उगाना चाहता हूं तो मुझे उसे बेचने के लिए स्थानीय स्तर पर कोई बाजार नहीं मिलेगा।
ग्रामीण विकास के नाम पर महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार कानून के तहत हो रहे विकास कार्यों में सबसे ज्यादा भ्रष्टाचार व्याप्त है। मेरी समझ में मनरेगा के तहत हो रहे 95 प्रतिशत कार्य गैरजरूरी हैं और सिर्फ खानापूर्ति करने के लिए किए जाते हैं। इस कानून का उद्देश्य सिर्फ यहां तक ही सिमट गया है कि ग्रामीणों को 100 दिन रोजगार मिल जाए। उस रोजगार से क्या निर्माण होगा, उससे क्या फायदा होगा, जो पैसा इस रोजगार के तहत खर्च किया जा रहा है उससे लोगों के जीवन स्तर में क्या सुधार आएगा इन उद्देश्यों को इस कानून से शायद बाहर रखा गया है। इसके तहत हो रहे 99.5 प्रतिशत कार्य अनउत्पादक हैं जिनका आम आदमी को कोई फायदा नहीं पहुंच रहा है। एक नुकसान यह जरूर है कि श्रमिकों की कमी की वजह से खेती की उत्पादकता जरूर कम हो रही है।
मैं समझता हूं कि सरकार को मनरेगा को पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप के तहत कृषि से जोड़ देना चाहिए। इससे किसानों को मजदूर मिल जाएंगे और उनकी मजदूरी किसान और सरकार मिलकर आधा-आधा दे देंगे। इससे न सिर्फ खेतों की उत्पादकता बढ़ेगी बल्कि सरकार को भी बचत होगी। इसके दो फायदे होंगे एक तो श्रमिकों का श्रम उत्पादक कार्य़ में लगेगा दूसरे अनुत्पादक कार्यों पर अनावश्यक खर्च नहीं होगा।
सरकार को किसानों के हित में ये कार्य करने चाहिए
1. किसानों द्वारा पैदा की जाने वाली फसलों को स्थानीय स्तर पर बेचने की सुविधा हो
2. डीजल पर मिलने वाली सब्सिडी किसानों को प्रति एकड़ फसल के हिसाब से मिले। कृषि के नाम पर दी जाने वाली इस सब्सिडी का फायदा ट्रांस्पोर्टर ज्यादा उठाते हैं।
3. किसानों की भूमि उनकी मर्जी के बिना न अधिग्रहित की जाए।
4. बिजली की व्यवस्था को नियमित किया जाए
5. फसल बीमा की योजना में सुधार किया जाए।
6. किसानों की उपज के मूल्य के निर्धारण का कोई अधिकार किसानों के पास नहीं है। अन्य कार्यों को मुकाबले कृषि को अपनी लागत के बदले आय छः महीने बाद मिलती है। इस स्थिति में वो किसी प्राकृतिक आपदा का सामना करने के लिए तैयार नहीं होते। किसानों के स्वास्थ्य और जीवन स्तर के सुधार के लिए उन्हें नगद मदद दी जाए।
7. और सबसे जरूरी ईमानदार और नेक अधिकारी भर्ती किए जाए ताकि किसानों को भ्रष्टाचार का सामना न करना पड़े।
प्रेषक-हरविंदर सिंह बरार पुत्र श्री धर्मजीत सिंह बरारग्राम दलवान, तहसील पदमपुर जिला श्रीगंगानगर, राजस्थान
यदि आप भी किसी परेशानी से त्रस्त हैं और कोई सुझाव देना चाहते हैं या किसी समस्या पर लिखना चाहते हैं तो आप हमें news@imcl.co.in पर लिख सकते हैं। हरविंदर के विचारों के बारे में आप क्या राय रखते हैं यह आप नीचे कमेंट बॉक्स में शेयर कर सकते हैं।
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