प्रधानमंत्री के नाम एक पत्र
Wednesday, 25 January 2012 13:09
Wednesday, 25 January 2012 13:09
आदिवासियों
का सबसे बड़ा नरसंहार आप ही के शासनकाल में किया गया। क्या शहीदों ने
कल्पना भी की होगी कि जिस देश को वो एक ईस्ट इंडिया कंपनी की गुलामी से
मुक्त कराने के लिये फांसी पर चढ़ रहे हैं, वह देश अनेक विदेशी कम्पनियों
का गुलाम हो जायेगा...
हिमांशु कुमार
आदरणीय मनमोहनसिंह जी, मैं
आपको ये खुला पत्र इसलिए लिख रहा हूँ ताकि देश को यह पता चल जाये कि देश
के आदिवासी इलाकों को युद्ध में झोंकने के लिए कौन जिम्मेदार है और आपने इस
मामले में देश के साथ क्या-क्या धोखा किया है। जब-जब सामाजिक कार्यकर्ताओं
ने सरकार और नक्सलियों के बीच शांति स्थापना की कोशिश की, हर बार किस तरह
आपने उसे नष्ट किया?
आपकी सरकार के गृह मंत्री पी. चिदम्बरम
जो अनेक व्यापारिक समूहों के पक्ष में सरकार के विरुद्ध मुकदमे लड़ते रहे
और वेदांता नामक बदनाम कम्पनी के बोर्ड मेम्बर थे, इन्ही पी. चिदम्बरम ने
नवम्बर 2009 में 'तहलका' नामक पत्रिका में एक इंटरव्यू में कहा था कि 'हाँ,
अगर कोई संस्था दंतेवाडा में जन सुनवाई का आयोजन करती है तो मैं वहाँ
आदिवासियों की तकलीफें सुनने के लिए दंतेवाडा जाने को तैयार हूँ।'
पी.
चिदम्बरम की इस घोषणा के बाद मैं उनसे नवम्बर 2009 में दिल्ली में उनके
निवास पर मिला, जहां हमारी लगभग 45 मिनट अकेले में बातचीत हुई। इस बातचीत
में चिदम्बरम ने मुझसे वादा किया मैं दंतेवाडा में सात जनवरी 2010 को एक जन
सुनवाई का आयोजन करूँगा,जिसमें हिंसा से पीड़ित आदिवासी आयेंगे और पी.
चिदम्बरम उसमें शामिल होकर आदिवासियों की तकलीफें सुनेंगे।
मैंने
इस मुलाकात में श्री चिदम्बरम को एक सी.डी. सौंपी थी जिसमें पुलिसकर्मियों
द्वारा किये गये सामूहिक बलात्कार पीड़ित लड़कियों के बयान थे तथा
सीआरपीएफ द्वारा डेढ़ साल के हाथ कटे बच्चे का चित्र एवं उसकी दादी द्वारा
दिया गया घटना का विवरण भी था |
इसके
बाद मैंने चिदम्बरम से कहा कि आप अपने आने का एक पत्र हमें भेज दें, ताकि
आपका कार्यक्रम पक्का मान लिया जाये। श्री चिदम्बरम ने मेरे हर फोन पर मुझे
आश्वस्त किया कि वो ज़रूर आयेंगे, लेकिन उन्होंने कोई औपचारिक पत्र नहीं
भेजा। इसी दौरान सरकार ने हमारे संस्था के एक वरिष्ठ कार्यकर्ता कोपा
कुंजाम को जेल में डाल दिया, क्योंकि वे गांव-गांव जाकर इस जन सुनवाई में
आने के लिए आदिवासियों को सूचित कर रहे थे। उसके बाद पुलिस ने उन बलात्कार
पीड़ित लड़कियों एवं उस हाथ कटे हुए डेढ़ साल के बच्चे का भी अपहरण कर
लिया,जिसका हाथ सीआरपीएफ के कोबरा बटालियन ने काट दिया था और जिनके बारे
में सीडी मैंने चिदम्बरम को दी थी।
मैं
आज तक नहीं समझ पा रहा हूँ कि पुलिस ने उन्हीं पीडितों का अपहरण क्यों
किया जिनके बारे में सिर्फ चिदम्बरम जानते थे कि इन लोगों को जन सुनवाई में
मेरे द्वारा पेश किया जाएगा। उन पीड़ितों का अपहरण किसके निर्देश पर किया
गया? इन बलात्कार पीड़ित लड़कियों का मुकदमा अदालत में चल रहा था। सरकार
अदालत में झूठ बोल रही थी कि वो पुलिस वाले फरार हैं, जबकि ये पुलिसवाले तब
से आज तक दोरनापाल थाने में ही रह रहे हैं और सरकार उन्हें नियमित पगार
देती है।
इन्हीं
अपराधी और बलात्कारी पुलिस वालों ने ने 400 अन्य पुलिस बल के साथ अर्थात
पूरी राज्य सत्ता के सहयोग से जन सुनवाई से दो सप्ताह पहले इन लड़कियों का
अपहरण कर लिया और दोरनापाल थाने में ले जाकर बलात्कार के मामले को अदालत
में ले जाने और पुलिस के खिलाफ मुंह खोलने की सजा के तौर पर पांच दिन थाने
में भूखा रखकर इन आदिवासी लड़कियों की पिटाई की।
मैंने
इस भयानक घटना की सूचना देश के गृहसचिव जीके पिल्लई, देश के गृहमंत्री
पी.चिदम्बरम, छत्तीसगढ़ के मुख्य सचिव पी जाय उमेन, छत्तीसगढ़ के डीजीपी
विश्वरंजन, दंतेवाड़ा मेंकलेक्टर रीना कंगाले और एसपी अमरेश मिश्रा सभी को
दी। परन्तु किसी ने भी उन लड़कियों की कोई मदद नहीं की। पांच दिन थाने में
पीटने के बाद बलात्कारी पुलिस वालों ने चारों लड़कियों को उनके गांव में
लाकर चौराहे पर फेंक दिया और गांववालों को चेतावनी दी कि अब अगर उन्होंने
दोबारा हिमाँशु से बात करने की जुर्रत भी की तो उनका गांव पूरी तरह जला
दिया जाएगा।
याद
रखिये इस अत्याचार के चार महीने बाद ही इसी क्षेत्र में छिहत्तर सीआरपीएफ
के जवानों को मार डाला गया था। अगर आप कारण और परिणाम की व्याख्या कर सकें
तो आपको शायद समझ में आ जाये कि जब हम लोगों को कमज़ोर समझ कर उनके साथ
अन्याय करते हैं और उनके लिए न्याय के सारे दरवाजे बंद कर देते हैं तो उसका
परिणाम कितना भयानक हो सकता है?
खैर,
इसके बाद समाचार पत्रों में छपा कि छत्तीसगढ़ के राज्यपाल ने आपको पत्र
लिखा है कि आप चिदम्बरम को हमारी जन सुनवाई के लिये दंतेवाड़ा आने से
रोकें। फिर 'इन्डियन एक्सप्रेस' में छपा कि आपने चिदम्बरम को इस जन सुनवाई
में आने से मना कर दिया है। इसी बीच मैंने चिदम्बरम को फोन करके पूछा कि वे
अपने आने के विषय में कोई लिखित सूचना क्यों नहीं दे रहे हैं और उन्होंने
कहा कि बदली हुई राजनीतिक परिस्थितियों में उनका आना असंभव है।
इसी
दौरान राज्य शासन ने हमारी संस्था के अधिकांश कार्यकर्ताओं के घर पर जाकर
संस्था का काम बंद करने के लिये धमकी देनी शुरू कर दी। उन आदिवासियों को
जेल में डालना शुरू कर दिया जिनके मामले हमने कोर्ट में दायर किये हुए थे।
मेरे चारों तरफ पुलिस ने घेरा डाल दिया। न मैं किसी आदिवासी से मिल सकता
था, न कोई मेरे पास आ सकता था।
अन्त
में एक आदिवासी महिला सोडी सम्बो जिसके पैर में सीआरपीएफ के कोबरा बटालियन
ने गोली मार दी थी, हम उसे 2 जनवरी 2010 को जब दंतेवाडा से दिल्ली
सर्वोच्च न्यायालय ला रहे थे तो रास्ते में पुलिस ने उसका अपहरणकर लिया और
उसके अपहरण का केस मेरे ऊपर लगा दिया।मैं
समझ गया कि इन परिस्थितियों में अब मैं आदिवासियों के लिए कुछ नहीं कर
पाऊंगा। इस तरह राज्य शासन के इस दमनचक्र को उजागर करने के लिए मुझे
छत्तीसगढ़ से बाहर आना पड़ा।
ये
स्पष्ट है कि भारत सरकार को हमने ये मौका दिया था कि वो सरकार से नाराज और
नक्सलियों के साथ चले गये आदिवासियों से बातचीत कर उनकी तकलीफें सुनकर,
उनका दिल और दिमाग जीतकर, उनकी आस्था भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था में पैदा
करे। परन्तु आपके गृहमंत्री और आपने मिलकर वह अंतिम अवसर भी गंवा दिया। अब
आप कितनी भी कोशिश कर लें, सरकार से नाराज आदिवासी आपके साथ कभी बात नहीं
करेंगे, क्योंकि उन तक पँहुचने का अंतिम पुल बस्तर में हम ही थे, जिसे आपने
अपने हाथों से तोड़ दिया।
नक्सलियों
के पास दो तरह की रणनीति होती है, सैन्य रणनीति और शांति काल की रणनीति।
उनके एक कंधे पर बंदूक होती है और दूसरे कंधे पर माओ और मार्क्स की
किताबें। जब शत्रु सामने होता है तो वे बंदूक उतार लेते हैं और शत्रु का
सामना करते हैं और जब शांति होती है तो वे दूसरे कंधे से झोला उतारकर जनता
को मार्क्सवाद और माओवाद की वैचारिक ट्रेनिंग देते हैं। उन्हें विचारपूर्वक
अपने साथ जोड़ते हैं।
मैंने
चिदम्बरम से कहा था कि भारत सरकार के पास सिर्फ सैन्य रणनीति है, वैचारिक
रणनीति नहीं है। आप बस गोली चलाना जानते हैं। आदिवासी का दिल जीतकर सरकार
की तरफ कैसे लाया जाय, ये रणनीति आपके पास है ही नहीं। हमने प्रस्ताव दिया
था कि आइये भारत शासन के लिए ये करने का अवसर हम आपको देते हैं। इन
आदिवासियों की तकलीफें सुनिये, इन्हें न्याय दिलाइये। इन्हें ये विश्वास
दिला दीजिये कि भारत सरकार इन्हें न्याय दे सकती है।
परन्तु
अफ़सोस, आपने वो अवसर गवां दिया। आपने आदिवासियों को संदेश दिया कि भारत
सरकार पीड़ित आदिवासी की तरफ नहीं है, वह बलात्कारी पुलिसवालों के साथ है।
वह डेढ़ साल के बच्चे का हाथ काटने वाली सीआरपीएफ के साथ है। आदिवासी आपके
दिल को और आपको ठीक से समझ गया है, लेकिन इस देश के शहरी मध्यमवर्ग को भी
समझ में आ जाना चाहिए कि इस देश में अशांति के जिम्मेदार नक्सलवादी नहीं,
बल्कि ये सरकार है और वर्तमान में चिदम्बरम और मनमोहन सिंह हैं।
आपने
सिर्फ मेरे मामले में ही धोखाधड़ी नहीं की, बल्कि आपकी सरकार ने सीपीआई
(माओविस्ट) के प्रवक्ता आजाद को भी स्वामी अग्निवेश के माध्यम से
शांतिवार्ता के लिए बुलाकर धोखाघड़ी करके उनकी हत्या की। अभी किशनजी को भी
शांतिवार्ता के जाल में उलझाकर मार डाला गया। इस बात का फ़ैसला तो इतिहास
करेगा कि इस संघर्ष में सही कौन था और गलत कौन। परन्तु इस देश को ये तो कम
से कम जान ही लेना चाहिए कि देश को इस गृहयुद्ध में धकेलने का कार्य आपने
ही किया था।
देश
में मेहनतकश लोग भुखमरी और बेआवाजी की हालत में हैं, पर ये आपकी चिन्ता का
विषय नहीं है। आपकी चिन्ता जीडीपी का आंकड़ा है। अरे जीडीपी तो खनिजों को
विदेशियों को बेचकर भी बढ़ाई जा सकती है,परन्तु उससे गरीब की स्थिति में
कोई सुधार नहीं होता | आप इस देश को लगातार जीडीपी की दर का झांसा देकर
आदिवासी इलाकों में गृहयुद्ध की ज्यादा से ज्यादा भड़का रहे हैं।
यह
विश्वास करना कठिन है कि आपको ये नहीं मालूम है कि कैमूर क्षेत्र में
पन्द्रह हजार आदिवासी और दलित महिलाओं को जेलों में ठूंस दिया गया है। क्या
आपको ये नहीं मालूम कि लंदन की कम्पनी वेदांता के लिए ज़मीन हथियाने के
मकसद से नियमगिरी की पहाड़ी पर रहने वाले लगभग दस हजार आदिवासियों में से
लगभग प्रत्येक पर पुलिस ने फर्जी केस लगा दिये गये हैं ताकि ये लोग डर कर
कभी जंगल से बाहर ही न निकल पायें और जंगल में ही इलाज के बिना मर जायें।
क्या
आपको यह नहीं पता कि उड़ीसा में जगातिन्घपुर में दक्षिण कोरिया की कम्पनी
पोस्को के लिये गांववालों की जमीन छीनने के लिये भेजी गई पुलिस को रोकने के
लिये औरतें और बच्चे गर्म रेत पर लेटे रहे और आज भी उन तीन गावों के हर
स्त्री पुरुष पर पुलिस ने फर्जी केस दर्ज कर दिये गये हैं और वहाँ की
महिलाएं बच्चे के प्रसव के लिये भी अस्पताल नहीं जा सकतीं।
आपको
यह भी ज़रूर मालूम होगा कि सलवा जुडूम के नाम पर भारत के आदिवासियों का
सबसे बड़ा नरसंहार आप ही के शासनकाल में किया गया। क्या यही आजादी है? क्या
शहीदों ने कल्पना भी की होगी कि जिस देश को वो एक ईस्ट इंडिया कंपनी की
गुलामी से मुक्त कराने के लिये फांसी पर चढ़ रहे हैं,वह देश आजादी के 64
साल के भीतर ही अनेकों विदेशी कम्पनियों का गुलाम हो जायेगा? लोगों के
सामने इंसाफ पाने और अपनी बात कहने के सारे रास्ते बंद हैं।
राष्ट्रीय
मानवाधिकार आयोग का अध्यक्ष जिसके ऊपर भ्रष्टाचार के साफ़ साफ़ मामले हैं,
वो कहता है कि 'कभी-कभी फर्जी मुठभेड़ जरूरी है।' राष्ट्रीय बाल अधिकार
संरक्षण आयोग को डेढ़ साल के बच्चे का हाथ सरकारी सुरक्षा बलों द्वारा काट
दिया जाना बाल अधिकारों का हनन लगता ही नहीं। सोनी सोरी नाम की आदिवासी
शिक्षिका के गुप्तांगों में एक जिले का एसपी पत्थर भर देता है, लेकिन
राष्ट्रीय महिला आयोग के कान पर जूँ भी नहीं रेंगती?
जिस
देश में करोड़ों मेहनतकश लोग भुखमरी की हालत में जी रहे हों और जहां आराम
से बैठकर अमीरों का एक छोटा सा तबका बेशर्म और अश्लील अमीरी में रह रहा हो,
वहीं आपने इन करोड़ों भूख से मरते मेहनतकश लोगों केलिए आवाज उठाने को
अपराध घोषित कर दिया है। आज देश में तकलीफ में कौन है? मेहनत करने वाला
मजदूर, खून पसीना बहाने वाला किसान, सारा उत्पादक काम करनेवाले दलित।
जंगलों में रहनेवाले आदिवासी।
याद
रखिये, ये लोग इसलिये गरीब नहीं हैं क्योंकि ये मेहनत नहीं करते, बल्कि ये
इसलिये गरीब हैं क्योंकि देश की राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक व्यवस्था
उन्हें गरीब बनाये रखती है। जो लोग इस अन्यायपूर्ण और उल्टी व्यवस्था की
ठीक करने और उसे सीधा करने का कार्य कर रहे हैं, वो क्रांतिकारी लोग अपराधी
हैं?
देश
की जेलें समाज में फैले अन्याय के खिलाफ आवाज उठाने वाले लोगों से भरी
पड़ी हैं। ये एक भयानक दौर है। देश के करोड़ों कमजोर लोगों के जीवन के
संसाधन छीनकर आप अंतर्राष्ट्रीय अमीरों को देने के सौदे कर रहे हैं और इस
लूट का विरोध करने वाले गरीबों को बर्बर तरीकों से कुचलने के लिए देश के उन
सुरक्षा बलों को लगातार गरीबों के गांवों में भेजते जा रहे हैं, जिन्हें
संविधान के द्वारा दरअसल इन गरीबों की रक्षा के लिए नियुक्त किया गया था।
यह
हालात लंबे समय तक नहीं चलेंगे। कुछ लोगों की अय्याशी के लिये करोड़ों
लोगों को तिल-तिलकर मरने के लिये मजबूर कर देने वाली इस व्यवस्था को लोग
हमला करके नष्ट कर देंगे। ऐसा करना उनका नैसर्गिक कर्तव्य भी है। चाहे इसे
अमीरों द्वारा बनाये गये कितने भी अभिजात्य क़ानूनों के द्वारा कितना भी
बड़ा अपराध घोषित कर दिया जाए।
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